डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
कृषि और किसानों के आर्थिक तथा
सामाजिक उत्थान के लिए आवश्यक है की कृषि विज्ञान की तमाम उपलब्धियो एवं समसामयिक
कृषि सूचनाओं को खेत-खलिहान तक उनकी अपनी भाषा में पहुचाया जाएं। जब हम खेत खलिहान
की बात करते है तो हमें खेत की तैयारी से लेकर फसल की कटाई-गहाई और उपज भण्डारण तक
की तमाम सस्य क्रियाओं से किसानों को
रूबरू कराना चाहिए। कृषि को लाभकारी बनाने
के लिए आवश्यक है की समयबद्ध कार्यक्रम तथा नियोजित योजना के तहत खेती किसानी के
कार्य संपन्न किए जाए। उपलब्ध भूमि एवं
जलवायु तथा संसाधनों के अनुसार फसलों एवं
उनकी प्रमाणित किस्मों का चयन, सही समय पर उपयुक्त बिधि से बुवाई, मृदा
परीक्षण के आधार पर संतुलित पोषक तत्त्व प्रबंधन, फसल की
क्रांतिक अवस्थाओं पर सिंचाई, पौध संरक्षण के आवश्यक उपाय के अलावा समय पर कटाई, गहाई
और उपज का सुरक्षित भण्डारण तथा विपणन बेहद जरूरी है।
मार्च यानि फाल्गुन-चैत्र बसंत
ऋतु आगमन का माह है। इस माह पौधों में वृद्धि, पुष्पन तथा फलन की सक्रियता
प्रारंभ हो जाती है। वातावरण का तापमान बढ़ने से गर्मी का आभास होने लगता है। तापमान बढ़ने से फसलों की जलमांग बढ़ जाती है। इस माह वातावरण का अधिकतम और न्यूनतम तापक्रम क्रमशः 35.0 और 21. डिग्री से.ग्रे. के आस पास रहता है। इस समय सापेक्ष आद्रता कम हो जाती है तथा वायु की गति तेज होने लगती है। कभी-कभी तेज आंधी आने से आम की फसल को हांनि होती है। इस महीने हम महाशिवरात्रि
और भाई चारे का त्यौहार होली उमंग और उत्साह से मनाते है। बसंत ऋतु आगमन पर चारों तरफ फूलों की बहार से जीवन में खुशहाली छा जाती है । इस माह किसान भाइयों को गर्मी से पौधों की सुरक्षा तथा सिंचाई नालियों की मरम्मत कर लेना चाहिए। कृषि के
लिए पानी की उपलब्धता निरंतर घटती जा रही
है. अतः दिन प्रति दिन घटते जल संसाधनों
से अधिकतम फसलों में सिंचाई कर भरपूर पैदावार लेने के लिए किसान भाइयों को
फसलों में सिंचाई के लिए निम्न तीन विधियां अमल में लाना चाहिए।
माह के तीन सूत्र
ü बूंद-बूंद सिंचाई: इस टपक सिंचाई भी कहते है जो की उथली मिट्टी, दोमट मिट्टी
तथा ऊंची-नीची जमीनों के लिए सर्वश्रेठ तथा सब्जिओं, फल-फूलों में सिंचाई के लिए
उपयुक्त विधि है। इसमें पानी बूंद-बूंद कर गिरता है जो कि आवश्यकतानुसार पौधों की जड़ो तक पहुँचता है। इस विधि में जल
रिसाव और वाष्पन से पानी की हांनि कम होती है जिससे 50-75 % पानी की वचत होती है
और उपज में बढ़ोत्तरी होती है।
ü फब्बारा विधि: सिंचाई की यह विधि कम पानी वाले क्षेत्रों की बलुई मिट्टी, ऊंची-नीची जमीनों
के लिए सर्वथा उपयुक्त पाई गई है। यह
गेंहू, गन्ना,कपास, मूंगफली, सब्जिओं तथा फूलों की खेती के लिए बेहद उपयोगी
है। इस विधि में पानी वर्षा की बौछारों की भांति गिरता है जिससे फसल में कीट-रोग
कम लगते है तथा पैदावार में इजाफा होता है।
ü सिंचाई की एकांतर कूंड विधि: सिंचाई की इस विधि में गन्ना, मक्का और कपास जैसी फसलों
में प्रत्येक दुसरे कूंड में पानी दिया जाता है जिससे 20-30 % पानी की वचत होती
है. फसलों की उपज और उर्वरक दक्षता भी
बढती है।
फसलोत्पादन में फाल्गुन-चैत्र
अर्थात मार्च महीने में संपन्न किये जाने वाले कृषि कार्यों की फसल वार चर्चा करते
है .
- गेंहू एवं जौ : समय पर बोई गयी गेंहू की फसल में दानों की दुधियावस्था एवं दाना पकते समय सिंचाई आवश्यक है। देरी से बोये गए गेंहू में बालियां आने की अवस्था पर सिंचाई करें। फसल में फूल बनते और दाना विकसित होते समय मिट्टी में नमीं की कमीं से उपज में भारी गिरावट होती है। असिंचित क्षेत्रों में गेंहू की कटाई व मड़ाई का कार्य करें। जौ की फसल में दानों की दुधिया अवस्था में सिचाई करने से उपज में बढ़ोत्तरी होती है।
- रबी दलहन : चना, मटर, तिवड़ा और मसूर की फसल में 75 % फलियाँ और पत्तियाँ पीली हो जाय तथा पौधे सूखने लगें तो इन फसलों की सावधानीपूर्वक कटाई संपन्न करें और फसल के पूरी तरह सूखने पर मड़ाई करें । देर से बोई गई इन फसलों में दाना भरने की अवस्था में सिंचाई करने से उपज में काफी बढ़ोत्तरी होती है।
- राइ-सरसों: सरसों फसल की कटाई और गहाई का कार्य यथाशीघ्र संपन्न करें। फसल की 75 % फलियों के सुनहरा पीला पड़ने पर कटाई करना उचित रहता है। कटाई सुबह करने से फलिओं के चटकने का अंदेशा नहीं रहता है। अधिक पकने पर दाने झड़ने लगते है. काटी हुई फसल को खलिहान में अधिक समय तक ना रखे अन्यथा पेन्टेड बग नमक कीट दानों को क्षति पहुंचा सकता है। यदि शीघ्र गहाई संभव नहीं है तो खलिहान की भूमि (फर्श) को गोबर से लीप कर उसमे मिथाइल पैराथियान 2% पाउडर का भुरकाव कर फसल ढेर बनाकर रखें।
- अलसी एवं सूरजमुखी : फसल की समय पर कटाई एवं मड़ाई संपन्न करें। देर से कटाई करने पर दाने छिटकने लगते है जिससे उपज में नुकसान होता है। सूरजमुखी में बुआई के 15-20 दिन बाद विरलीकरण द्वारा पौधों से पौधों के मध्य 25-30 से. मी. की दूरी कायम कर लेवें। इसमें प्रथम सिंचाई 20-25 दिन में करें। इसके बाद 30 किलो नत्रजन प्रति हेक्टेयर की दर से कतारों में देकर पौधों में मिटटी चढाने का कार्य करें।
- धान : ग्रीष्मकालीन धान में बकाया नत्रजन कतारों में देवें। खेत में उपयुक्त जल स्तर बनाये रखने के लिए सिंचाई करते रहें। कीट रोग आक्रमण से फसल की सुरक्षा करें।
- मक्का: पूर्व में बोई गई मक्का में झंडे आने पर बकाया नत्रजन पौधों के तने के पास डालकर मिट्टी चढाने का कार्य करें जिससे फसल का गिरने से बचाव हो सके. इस समय एक हल्की सिंचाई भी करें। इसके बाद 15-20 दिन के अंतराल से सिंचाई तथा आवश्यकतानुसार पौध सरंक्षण कार्य करे।
- गन्ना: बसंतकालीन गन्ने की बुआई/रोपाई करने का यह उचित समय है। ध्यान रहे कि बीज हेतु उन्नत किस्म के स्वस्थ गन्ने के ऊपरी दो तिहाई भाग से 2-3 आँखों वाले टुकड़ों को ही बुआई के लिए इस्तेमाल करें। गन्ने की तैयार फसल की कटाई कर शीघ्र ही विक्रय हेतु शक्कर कारखाना भेजने की व्यवस्था करें।
- गन्ने के साथ सहफसली खेती: गन्ने में शुरू में बढ़वार धीमी होती है इसका लाभ उठाते हुए गन्ने की दो कतारों के बीच एक पंक्ति शीघ्र तैयार होने वाली मूंग, उर्द, गुआर फली, लोबिया, भिन्डी आदि की अन्तः फसली खेती की जा सकती है। इससे गन्ने में खरपतवार प्रकोप कम होता है तथा अतरिक्त फसल भी मिल जाती है।
- गन्ने में दीमक और जड़ वेधक कीट से सुरक्षा हेतु 2.5 लीटर क्लोरोपायरोफ़ॉस 20 ई सी का 800 लीटर पानी में घोल बनाकर छिडकाव करें। शरदकालीन गन्ने में 1/3 नत्रजन की दूसरी किश्त इस माह के अंत तक देवें और सिंचाई करें ।
- अरहर: देरी से बोई गई अरहर की फसल में फलियों में दाना भरते समय सिंचाई करें तथा फली छेदक कीट से फसल की सुरक्षा हेतु आवश्यक उपाय करें। समय पर लगाईं गई फसल पकने पर सावधानीपूर्वक कटाई और गहाई करें ।
- मूंग व् उर्द : सिंचाई की सुविधा वाले क्षेत्रों में ग्रीष्मकालीन उर्द और मूंग की बुआई इस माह के प्रथम पखवाड़े तक संपन्न कर लेवें। इनकी शीघ्र तैयार होने वाली किस्मे लगाये जिससे वर्षा आगमन से पहले फसल तैयार हो जावे। प्रति हेक्टेयर मूंग का 25-30 तथा उर्द का 30-35 किग्रा बीज को थिरम से उपचारित करने के बाद 25-30 सेमी की दूरी पर कतारों में बोया जाना चाहिए। इन फसलों में बुआई के समय 20 किग्रा नत्रजन, 40-50 किग्रा. फॉस्फोरस तथा 20 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए। फसल बुआई पश्चात खेत में हल्की सिंचाई देवें।
- चारा फसलें: बरसीम और लूसर्न की कटाई आवश्यकतानुसार करते रहें तथा प्रत्येक कटाई पश्चात सिंचाई अवश्य करें। बीज बनाने हेतु बरसीम की कटाई इस माह रोक देवें। ग्रीष्काल हेतु हरे चारे के लिए ज्वार व बाजरा की बुआई करें। ज्वार का 30 किलो बीज प्रति हेक्टेयर 25 से.मी. की दूरी पर कतारों में बोये। बाजरा की बुआई कतारों में 30 से.मी. की दूरी पर करें। इसके लिए 10 किग्रा प्रति हेक्टेयर बीज पर्याप्त होता है। इन फसलो के साथ मिश्रित फसल के रूप में लोबिया की बुआई करे। चारे हेतु ज्वार की कटाई पुष्पावस्था के समय ही करें। छोटी अवस्था में ज्वार चारा जहरीला (एच.सी. एन.) होता है।
- वर्ष भर हरा चारा उत्पादन हेतु संकर हांथी घास (नैपियर) लगायें। इसे जड़ो या टनों के टुकड़ों से उगाया जाता है. लगभग 50 सेमी लम्बे 2-3 गांठों वाले 30,000 टुकड़े प्रति हेक्टेयर लगते है. इसके लिए आधा टुकड़ा जमीन में तथा आधा टुकड़ा ऊपर रखक कर कतार से कतार 75 से.मी. तथा पौध से पौध 60 से.मी. की दूरी रखते हुए तैयार खेत में इनका रोपण करने के बाद सिंचाई करें।
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